13 अक्टूबर 1935 को येवले(नाशिक) मे डॉ बाबासाहेब आंबेडकर ने धर्मानंतर की घोषणा की थी। 14 अक्टूबर 1956 को दसरे के दिन बौद्ध धम्म अपना कर पूरे विश्व मे इतिहास रचा था। इतनी बडी संख्या मे एक साथ लोगों का धर्मांतर करना सच मे एक अद्भुत घटना थी। बाबासाहेब ने खुद बौद्ध धम्म अपना कर अपने अनुयायीयो को बौद्ध धम्म की दीक्षा दि थी। पर आजकल बौद्ध लोगों मे एक प्रश्न उपस्थित हो रहा है की धर्मांतर का दिन 14 अक्टूबर माने या दसारा(विजयादशमी) का माने?
न्यूज मेडियेटर्स – आकाश वनकर
धर्मांतर के उदेश्य मे एक मुख्य उद्देश्य था की अपने समाज को किसी तो भी अन्य समाज से संबंध प्रस्थापित किये बगैर, किसी और धर्म मे शामिल हुए बगैर हमे किसी बाहर के लोगों की शक्ति नहीं मिल सकती। इसलिए किसी ओर धर्म मे हमे सम्मिलित होना चाहिए ताकि बाहार की शक्ति मिलकर हम एक सामर्थ्यशाली समाज बन सके। यही सामर्थ्य प्राप्त करने के लिए धर्मांतर जरूरी था।
अनेक धर्म के प्रस्ताव।
बाबासाहेब के धर्मांतर की घोषणा के बाद मुसलमान, ख्रिस्ती, बौद्ध व शिख धर्म के लोग डॉ बाबासाहेब आंबेडकर को आ कर मिलने लगे, चर्चा करने लगे और धर्म का साहित्य भी अभ्यास के लिए देने लगे। तब बाबासाहेब सभी धर्मों का द्रुढ़ता पूर्वक अभ्यास करने लगे। क्युकी इतने धर्म मे से एक को चुनना काफी मुश्किल था।
बौद्ध धम्म से लगाव और अभ्यास।
डॉ बाबासाहेब आंबेडकर के मन मे भगवान बुद्ध और उनका धम्म के लिए बहुतही आदरभाव था। उन्होंने अपने अखबार के छपाई के लिए जो कारखाना खरीदा था, उसका नाम ‘बुद्धभूषण प्रिंटिंग प्रेस’ ऐसा रखा था।
1933 मे मुंबई के दादर इलाके मे हिन्दू कालोनी मे रहने के लिए और अपनी ग्रंथ संपदा को रखने के लिए के बिल्डिंग बनाई थी। उस बिल्डिंग का नाम ‘राजगृह’ रखा था। राजगृह यह नाम बौद्ध संस्कृति से है।
30 मई 1936 मे मुंबई मे अखिल मुंबई इलाखा महार परिषद’ आयोजित की थी। उस मे बाबासाहेब ने धर्मांतर के संबंध मे जो भाषण दिया था, उस भाषण का अंत भगवान बुद्ध और उनका शिष्य भिक्षु आनंद के बीच ने हुए संवाद के साथ हुआ था। इस बुद्ध संवाद के साथ बाबासाहेब ने ‘स्वयं प्रकाशित हो’ का मंत्र समस्त जन को दिया था।
1940 से बाबासाहेब आंबेडकर ने ‘भगवान बुद्ध और उनका धम्म’ पर ग्रंथ लिखने के लिए साहित्य जमा करना और उसका अभ्यास करना शुरू कर दिया था। साथ ही 17 मे 1941 के अंक के अग्रलेख मे बुद्धजयंती और उसका राजकीय महत्व’ छपा था, जो बाबासाहेब ने लिखा था।
20 जून 1946 को सिद्धार्थ कॉलेज ऑफ आर्ट्स शुरू किया। सिद्धार्थ यह नाम भी भगवान बुद्ध का था। 1949 मे बाबासाहेब ने दो बडी बिल्डिंग खरीदी थी। एक बिल्डिंग का नाम बुद्ध भवन और दूसरे का आनंद भवन रखा था। यह भी बौद्ध संस्कृति के नाम है।
1950 मे मराठवाडा औरंगाबाद मे कॉलेज शुरू किया, उस कॉलेज का नाम मिलिंद कॉलेज रखा और उसके परिसर का नाम नागसेन वन रखा था। यह भी बुद्ध संस्कृति के ही नाम है। तथा 1950 मे ही बौद्ध धम्म के प्रचार और प्रसार के लिए भारतीय बौद्ध जनसंघ नाम की संस्था स्थापन की थी। और बाबासाहेब को पालि भाषा का ज्ञान भी था।
सभी बातों से यही जाहीर होता है की बाबासाहेब के बौद्ध धम्म के तरफ रुचि थी और उनका काफी गहरा बौद्ध धम्म का अभ्यास था। धम्म के हर पहलू को पालि और संस्कृत भाषा मे पढ़ा था। धम्म कैसे निर्माण हुआ और कैसे प्रसार एवं प्रचार हुआ इसका पूर्ण ज्ञान था।
बौद्ध धम्म दीक्षा।
सप्टेंबर 1956 को डॉ बाबासाहेब आंबेडकर ने तीन महत्वपूर्ण निर्णय लिए। पहला – बौद्ध धम्म का ही स्वीकार करने का, दूसरा – नागपूर मे ही धम्मदीक्षा कार्यक्रम आयोजित कर के बौद्ध धम्म अपनाने का, तीसरा – दीक्षा कार्यक्रम मे जो समुदाय उपस्थित रहेगा, उसको वही पे बौद्ध धम्म की दीक्षा देने का।
बाबासाहेब ने धम्मदीक्षा कार्यक्रम की जो तारीख निश्चित की थी 14 अक्टूबर 1956 और उसी दिन दसरा भी था। बाबासाहेब के हिसाब से 14 तारीख का महत्व अधिक था की दसरे(अशोक विजयादशमी) का? भारतीय संस्कृति मे तारीख से ज्यादा तो त्योहारों को महत्व दिया जाता है। बुद्ध जयंती की भी कोई तारीख निश्चित नहीं होती।
14 अक्टूबर या दसरा (अशोक विजयादशमी)।
धम्मदीक्षा का कार्यक्रम निश्चित होने के बाद दिल्ली मे 23 सप्टेंबर को बाबासाहेब ने अपनी सही के साथ एक प्रेस नोट जारी कि थी और अखबारों को छापने के लिए दि थी। उसका आशय ऐसा था की ‘ मै नागपूर मे दसरे(विजयादशमी) के दिन याने 14 अक्टूबर 1956 को सुबह 9 से 11 बजे के वक्त मे बौद्ध धम्म की दीक्षा लेके बौद्ध धम्म का स्वीकार करूंगा’।
1956 यह वर्ष भगवान बुद्ध के 2500 वे जयंती का वर्ष था इसलिए संयुक्त राष्ट्र संघ से संबंधित यूनेस्को द्वारा पूरे विश्व मे जयंती वर्ष मनाया जा रहा था। भारत मे भी विविध कार्यक्रम आयोजित करके 2500 वी जयंती मनाई जा रही थी।
विजयादशमी या दसरा यह दिन सम्राट अशोक के हिसाब से महत्वपूर्ण दिन है। सम्राट अशोक एक ऐसी व्यक्ति है जिसने शुद्ध बौद्ध धम्म को पुनर्जीवित करके धम्म का प्रसार और प्रचार किया था।
सम्राट अशोक के काल मे बौद्ध धम्म के 17 संप्रदाय हुए थे, जिसकी वजह से धम्म मे कलह बढ़ने लगा था। अनेकों लोग लाभ सत्कार के लालच से कषाय वस्त्र पहन के भिक्षु संघ मे शामिल होने लगे। तब सम्राट अशोक ने अयोग्य भिक्षु को सफेद वस्त्र देकर संघ से निष्कासित कर दिया था और पूरे धम्म एवं संघ को शुद्ध स्थिती मे लेकर आए थे।
दुराचारी भिक्षुओ का निष्कासन करके स्थविरवाद संघ की पुनर्स्थापना की थी सम्राट अशोक ने। बौद्ध धम्म को सिर्फ भारतवर्ष मे ही नहीं तो पूरी दुनिया मे पहुचाया था। तीसरी संगीति के बाद मे अनेकों भिक्षु को विविध प्रदेशों मे धम्म के प्रचार और प्रसार हेतु भेजा था। ताकि पूरी दुनिया बौद्धमय हो जाये।
ठीक सम्राट अशोक की तरहा बाबासाहेब की भी इच्छा थी की ‘भारत भूमि को बौद्धमय करने की और बौद्ध संस्कृति का पुनःनिर्माण करने की। 1956 मे भी भारत की भूमि बौद्ध धम्म के हिसाब से शून्यवत थी। बाबासाहेब ने ही इस सदी मे बुद्ध के भूमि मे बौद्ध धम्म को पुनर्जीवित किया था।
नागपूर के दीक्षाभूमि कार्यक्रम के बाद अलग अलग जगह पर धम्मदीक्षा के कार्यक्रम आयोजित करने का बाबासाहेब सोच रहे थे और अपने जीवन का जादा से जादा समय बौद्ध धम्म के प्रचार और प्रसार के लिए देना चाहते थे। 20 नवंबर 1956 को बौद्ध धम्म की जागतिक परिषद मे किये विद्वतापूर्ण भाषण से उनको आज के युग का विद्वान बौद्ध की ख्याति मिली थी।
सम्राट अशोक से ही धम्म प्रचार और प्रसार की प्रेरणा लेके ही बाबासाहेब ने बौद्ध धम्म का प्रचार और प्रसार करना चाहा। इसलिए बाबासाहेब ने अशोक विजयादशमी का दिन चुना। अगर बाबासाहेब को थोड़ा वक्त ओर मिल गया होता और जीवित होते तो उनका कार्य पूर्णता सम्राट अशोक के कार्य जैसा ही होता।
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